Sunday, November 28, 2010

इस धूप में

कुछ बदला बदला सा क्यूँ है,
इस धूप में?
जाड़ों की है ये, वो भी जाड़ों की थी
उन्हीं पर्दों से छान रहा हूँ,
बार बार, हर बार जतन कर
फिर भी धांस अलग अलग सी,
आती है क्यूँ
इस धूप में?
शायद कुछ मिल जाता होगा रंज,
कुछ टूटे से सपने
चंद क़ातिलों
की यादों का अरक कहीं पड़ जाता होगा
तभी अजायब सूंघ रहा हूँ,
परेशान सा,
इस धूप में।
कोई कांच बना पाऊँ
जो उन यादों झलक दिखा दे
कुछ लम्हों को चुन लेने दे, कुछ
चेहरों की भीख दिला दे
नरमाई,
वो हंसी ठिठोली,
उम्मीदें, ममता की खुशबू
मिल जाएँ फिर पुरबाई तो,
अपनेपन का चरख चढ़ा कर
धौला हो लूँ
इस धूप में।

मज़े उसके, उड़ायेजा

ना आया कहीं से बुज़दिल, ना कहीं वो जाएगा
खाक़ से पैदा हुआ था, खाक़ में मिल जाएगा।
चंद लम्हे, हक़ से हैं जो, ज़िन्दगी के, जीते जा
तू नहीं, तो ये जहां क्या? ज़िन्दगी क्या कायनात?
जो नसीबे वक़्त मुमकिन, मज़े उसके, उड़ायेजा।
<२४११२०१०१५२४>