Sunday, September 5, 2010
क्यूँ
क्यूँ के जब इंसान बना, इंसान के साथ ही "क्यूँ" दुनिया में आ गया। तब से बात बात में "क्यूँ", हर काम में "क्यूँ", जीने में "क्यूँ", मरने में "क्यूँ"...बस "क्यूँ" ही "क्यूँ"। बहुत ही अजीब चीज़ है ये "क्यूँ"। कोई निठल्ला बैठा हो तो लोग पूछेंगे क्यूँ। उठ के चलने लगे तो भी पूछ बैठेंगे क्यूँ। लोगों की तो क्या ही बात कि जाए, खुद अपना ज़हन भी क्यूँ पूछे बिना कहाँ ठहरता है? मान भी लिया जाए कि कई बार क्यूँ का जवाब मौजूद होता है मगर ये कहाँ कि शराफ़त है कि हर उस चीज़ पर सवाल किया जाए जिसका जवाब मौजूद है। ये तो सरासर नाइंसाफी है...है कि नहीं? इक रोज़ इश्क़ हुआ तो ना जाने कितनी बार ज़हन ने दिल से पूछा - "क्यूँ?", मगर लाख चाह कर भी जवाब नसीब न हुआ। अब अगर ये जुर्म हो तो कोई पुलिस में इत्तेला कर दे, मगर जवाब की नामौजूदगी भी कभी जुर्म हुआ करती है क्या? इतना ही नहीं, इश्क़ का इज़हार हुआ तो जनाब ने पूछा क्यूँ? अब ज़माना कितना भी खराब क्यूँ न हो, इश्क़ का इज़हार आज भी मुशरिकी में नहीं गिना जाता। कोई मुशरिकी कर बैठे तो उस से पूछ भी लिया जाए के "क्यूँ"? मगर इज़हारएइश्क़ पर भी "क्यूँ"? बड़े ताज्जुब की बात है। यूँ तो हर आशिक़ यही दुआ करता है की उसके इज़हार पे इक़रार हो ही जाए मगर असल में ऐसी कुव्वत ख़ुशकिस्मती से ही नसीब हो पाती है। चलिए, हर इज़हार का नतीजा इक़रार न भी हो मगर ये भी कहाँ तक जायज़ है की हर इनकार पे "क्यूँ" का साया डाल दिया जाए? ये तो कोई बात न हुई। आखिर हमसफ़र सिर्फ एक मुसाफिर ही चुनले और दूसरे की राय न ले तो सफ़र ही शुरू कहाँ हो पायेगा? तो आखिर सफ़र शुरू हो ही नहीं पाया। रो धो के भी क्या हासिल होता, सोचा सफ़र बाद में कभी देखेंगे, फ़िलहाल अदनी तामीलों की ही अदायिगी कर लें - कौन जाने सफ़र कर भी पायेंगे इन्साफ की रात के पहले या नहीं? अब "क्यूँ" पूछने से सफ़र तो शुरू नहीं हो जाएगा ना ...
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