Thursday, July 1, 2010

नमूना

"यार, यकीन नहीं होता...कमाल है!!"
आदित्य कि आँखें विस्मय से फटी जा रहीं थीं.
"किशन?... अपना किशन?"
"नहीं, ऐसा नहीं हो सकता यार...!"
आदित्य बार बार एक ही बात कहे जा रहा था.
"ऐसा ही है. तू मान या न मान... और..नहीं भी मानेगा तो क्या फरक पड़ेगा?"
विकास ने ठंडी आवाज़ में आदित्य को समझाने कि आखिरी कोशिश की. उसे समझ नहीं आ रहा था कि आदित्य इतना क्यूँ भड़क रहा था. मैनें तो चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी.
"अबे, मुझे भी अजीब ज़रूर लगा था मगर तू तो पागल सा ही हो गया..! ठीक है, तू अब तक उसे अपने जैसा समझ रहा था मगर उसने तो कभी नहीं कहा कि वो हिन्दू है. हम सब के साथ रहता है, पढता है, खेलता है, तेरे साथ रात भर बाईक पर आवारागर्दी करता है... कभी शक ही नहीं हुआ कि वो क्रिश्चियन है. नाम भी तो हिन्दुओं जैसा है उसका... लेकिन क्या फरक पड़ता है? उसने तो कभी झूठ नहीं कहा ना... अबे, क्रिश्चियन भी हो तो है तो अपना दोस्त ही ना.."
"...मगर..."
"...छोड़ ना अब.. चल कैंटीन चलते हैं...पेट में कब से चूहे दौड़ रहे हैं...कुछ नहीं रखा इस फालतू कि बहस में."
विकास ने पेट पर हाथ फेरते हुए नाटकीय अंदाज़ में कहा.
"...खाओ, पीओ, करो आनंद...कह गए भाई परमानन्द.."
"..चल.."
मैनें आदित्य को लगभग बाहर धक्का देते हुए कहा. इसकी बहसबाजी से ना जाने कितनी बार दिमाग का दही करवा चुका हूँ.
विकास फिर भी ठीक था. ज्यादा टेंशन नहीं लेता था. और ना ही उसे पोलिटिक्स, धरम वरम कि बातों में कोई इंटेरेस्ट था. लेकिन आदित्य पक्का देशभक्त. स्वयं को समाज सुधारक समझते थे जनाब. बचपन में पिताजी आर. एस. एस. कि शाखा में क्या ले गए, एक एक करके निक्कर धारियों के सारे कैंप अटेंड कर आये बरखुरदार. अब ना जाने क्या घुट्टी पिलाते हैं ये शाखा वाले ये तो वोही जाने मगर सच ये है कि इंसान का नमूना बना देते हैं.
* * *
हुआ यूँ कि कल मैं और विकास लोधी रोड पर तफरी मार रहे थे. सन्डे जो था. आई एच सी में एक प्ले लगा था. हमने सोचा चलो प्ले भी देख लेंगे और लंच भी बाहर हो जाएगा. आखिर सन्डे को हॉस्टल में तो खाना मिलने से रहा. मगर जैसे ही लोधी रोड पर टर्न लिया, क्या देखते हैं कि मेथोडिस्ट चर्च के बाहर किशन खड़ा है. आनन फानन में ब्रेक लगाया और बाईक घुमा ली.
"अरे किशन तू क्या कर रहा है यहाँ?"
हमको यूँ आसमान से टपकता देख, किशन सकपका सा गया.
"...तुम?! ..यहाँ?!"
"..अरे हम तो यूँ ही भटक रहे हैं भाई, मगर तू क्या कर रहा है यहाँ?"
"...मैं? मैं तो... हर सन्डे आता हूँ... यहाँ.."
"..क्यूँ?"
"..क्यूँ क्या? आता हूँ ..बस.."
"..अबे लडकियां ताड़ने आता है क्या?"
हम भी कहाँ छोड़ने वाले थे किशन को. टांग खींचने कि पुरानी आदत जो ठहरी.
"..बता"
"..प्रेयर करने आता हूँ... गुनाह है क्या?
किशन के चेहरे से घबराहट साफ़ झलक रही थी. मगर आवाज़ में खीज के साथ गुस्सा भी था.
"...प्रेयर करने आता हूँ.."
एक पल के लिए तो हमें झटका सा लगा था. मगर अगले ही पल तस्वीर साफ़ हो गयी थी. हम तो यही सोचे बैठे थे कि ऐसे ही आया होगा चर्च... कभी ख़याल ही नहीं आया कि किशन अलग धरम का होगा...
"...ओह. ओके..सॉरी.."
इतना ही कह पाए हम. समझ ही नहीं आया क्या कहें.
"...चल, ठीक है मिलते हैं फिर.."
औपचारिकता पूरी कर, हम वहां से निकल आये. देखा भी नहीं किशन को मुड़ कर दोबारा. ना प्ले देखने कि इच्छा हुई ना ही भूख लगने के आसार थे सो चुपचाप वापस हॉस्टल लौट आये. कुछ घंटों तक चुप रहे, सोचते रहे. फिर लगा क्या फरक पड़ता है. हिन्दू हो या क्रिश्चियन... है तो किशन हमारा दोस्त ही ना.
पर ये तो मैं और विकास थे जो सदमे से जल्दी उबर गए थे. आदित्य कि बात अलग थी... पक्का देशभक्त जो समझता था खुद को वो...
* * *
"अभी रात को उसके रूम पे जा के बात करूंगा उस से..."
सामने चाय के साथ मैगी कि प्लेट रखी थी फिर भी आदित्य कि बकवास बंद नहीं हुई. हाँ, बकवास ही थी, और क्या?
इतनी बार समझा लिया कि भाई, क्यूँ टेंशन ले रहा है - क्या बिगड़ गया तेरा. मगर लगता है कि टूटे रिकॉर्ड कि तरह अटक गया है ये.
"अरे, है क्रिश्चियन तो होता रहे मगर छुपाने का क्या मतलब है?"
"अरे धरम बदल रहे हो तो कम से कम हिम्मत से कहो तो तो सही कि हाँ जी, हमने अपना धरम बदल लिया...कर लो जो करना है.."
"मगर इतनी हिम्मत होती तो इन मिशनरीज़ के बहकावे में आते ही क्यूँ?
"अभी रात को उसके रूम पे जा के पूछूंगा..."
काफी देर तक तो विकास चुप बैठा रहा. जल्दी गुस्सा नहीं आता है उसे. लेकिन अचानक भड़क गया वो.
"दिमाग खराब है क्या? एक घंटे से बकवास किये जा रहा है...! जैसे क्रिश्चियन होना कोई जुर्म है..! इंडिया है ये. सेकुलर है... समझा तू? सेकुलर. सब बराबर हैं. तेरी तरह जात धरम में बांटा नहीं जाता यहाँ लोगों को. और तुझे तो अफगानिस्तान में पैदा होना चाहिए था. तू... तालिबान है..! समझा? हिन्दू तालिबान... ब्लडी एक्सट्रीमिस्ट!"
"और अगर तूने कोई फ़ालतू बात किशन से करी तो देख लियो..!"
आदित्य को धमकी देता हुआ, उठ के चला गया विकास कैंटीन से. कभी कभार ही इतना गुस्सा आता है उसे. मगर ठीक ही तो कह गया था वो. मन ही मन विकास को असली देशभक्त मानता था मैं. आदित्य कि बातें पिछड़ी, गंवारू और पोंगापंथी मालुम होती थीं.
फिर भी में आदित्य के साथ ही बैठा रहा. मुझे लगा कहीं अकेले जा के किशन को कुछ उल्टा सीधा ना बोल दे. तरस आ रहा था किशन पर अब मुझे. और आदित्य पर गुस्सा.
मेरी चाय ख़तम हो चुकी थी पर आदित्य कि जस कि तस पड़ी हुई थी. मैगी भी सारी मैनें ही ख़तम की थी. जैसे जैसे शाम ढलने लगी वैसे वैसे कैंटीन में लड़की-लड़कों कि भीड़ बढ़ने लगी. मंडे ईवनिंग थी. लगभग सारे अच्छे लेक्चर्स मंडे को ही होते थे. इसलिए कैंटीन में भी बात-चीत के शोर में सोशल साइंस और इकोनोमिक्स की झलक नज़र आ रही थी. माहौल थोडा सामान्य लगा तो दिल को भी थोडा सुकून मिला. आदित्य चुपचाप ज़मीन को घूरे जा रहा था. कम से कम चुप तो था.
इतने में क्या देखता हूँ कि सामने से किशन आ रहा है. हमारी ही तरफ. चेहरा उसका गंभीर लग रहा था. मैनें नज़र दूसरी तरफ घुमा ली. ना जाने क्या बोले किशन...
"दादा..!"
मुझे दादा ही बोलते थे ये सारे. शायद सारे बांग्ला-भाषियों को दादा ही बोला जाता है यहाँ दिल्ली में.
"...अरे.. किशन?"
"...तू कब आया?"
"..अभी.."
"..आ,..बैठ.."
"नहीं. तुम तीनों से कुछ बात करनी है. रूम पे चलोगे मेरे?.. या यहीं....कर लें..?"
परेशान लग रहा था किशन.
"हाँ..हाँ.. चल रूम पे चलते हैं..."
मैनें जल्दी जल्दी उठते हुए कहा.
"..आदित्य?"
"..चलें क्या.."
अब भी ज़मीन में देख रहा था आदित्य.
"...क्यूँ? रूम पे क्यूँ? यहीं बात कर लेते हैं श्री किशन मुंडा जी से.."
उसकी आवाज़ में जो उपहास छुपा था वो मुझे कतई अच्छा नहीं लगा.
"...अबे कह रहा है तो रूम पे चल लेते हैं, कोई ज़रूरी बात होगी तभी तो कह रहा है..."
"...नहीं! बात होगी, तो यहीं होगी...दादा!"
आदित्य ने नज़र उठा कर किशन कि तरफ देखा. इस बार उसकी आवाज़ नरम थी मगर शब्द फिर भी कठोर के कठोर.
"...बैठ किशन"
"...आदित्य.. यार..."
किशन फुसफुसाया
"...मैं जानता हूँ कि मुझ को चर्च में देख कर तुम लोगों को अजीब लगा होगा..मगर..."
"...मगर क्या?"
"...सॉरी यार..कभी बताया नहीं तुम लोगों को... कभी ज़रुरत ही नहीं लगी...और फिर डर भी तो था... क्या मालूम क्या समझते तुम लोग.. खासकर तू.."
"खासकर में..?"
"हाँ..वो... तू... आर एस एस में जाता है ना..."
"लेकिन किशन, तू क्यूँ कन्वर्ट हुआ? ...क्यूँ यार? ...क्या प्रॉब्लम थी?..तू बता मुझे.... किसने इन फालतू चीज़ों में फसाया? .."
आदित्य बिलकुल सेंटी हो गया था. लग रहा था जैसे उसका भाई बिछड़ रहा हो सामने के सामने.
"तू बोल किशन यार... कौन लोग हैं ये...जिन्होंने तुझे ऐसे फसाया... मैं मदद करूंगा यार अगर कुछ प्रॉब्लम है .. फॅमिली में.. मगर ऐसे चक्कर में मत आ यार.."
इधर किशन चुप था. आदित्य का रीएक्शन देख कर. उधर आदित्य कि आँखें नाम हुई जा रही थीं. शायद बिना वजह.
"मुझे पता है... ज़रूर कोई मजबूरी होगी तेरी किशन... नहीं तो कोई कोई अपना धरम, अपना कल्चर थोड़े ही छोड़ देता है... लेकिन में हूँ ना, मुझे अपना भाई समझ, मुझे बता क्या प्रॉब्लम है..."
यकायक, किशन कुछ कहने को हुआ मगर उसकी आवाज़ भर्रा गई.
"...आदित्य, तू नहीं जानता..."
लगा कि किशन अभी रो ही देगा. न जाने क्या हो रहा था यहाँ. मैं कन्फ्यूज्ड था. आसपास कुछ लोग खड़े नज़र आ रहे थे. शोर कम हो चुका था. विकास भी ना जाने कब से मेरे पीछे खड़ा सब सुन रहा था. छोटी सी बात अब छोटी नहीं रही थी. शायद.
"...आदित्य, तू नहीं जानता..."
"...मेरे गाँव में...,उलहातु के पास गाँव है मेरा, ... सुना है कभी उलहातु?.."
"..नहीं"
"...झारखंड के बीहड़ में है...."
"....बारिश में मेरे गाँव आ नहीं सकता है तेरे जैसा कोई.. जानता है क्यूँ?"
"..नहीं"
"....तीन तरफ खड़ा पानी है, एक तरफ जंगल. एक बांस कि पुलिया है गाँव में आने के लिए...बांस पे लटक के आना पड़ता है..."
"मुंडा हूँ मैं... बिरसा मुंडा के गोत्र का... मेरे बापू बिरसा मुंडा कि तरह सरना धरम मानते थे... उनके बापू, मेरे बाबा, बताया करते थे सरना धरम के बारे में हमको...सदियों से चला आ रहा है सरना धरम मुंडा लोगों में. धरती अम्मा को, जंगल के देवों को मानते थे हम लोग. पोखरों में धान बो लेते थे. झाड़ियों से बेर और कभी मछली मिले तो मछली और हिरना मिले तो हिरना, पकड़ लाते. फिर भी भोग लगाते कभी महुआ के देवता को तो कभी पहाड़ी के देवता को. धान कटता तो, गोद भरती गाँव में किसी बहना की या बाबा सामान कोई बड़ा बूढा चल बसता तो भी कभी जंगल के देवों को भूले नहीं मुंडा लोग....बांस की झोंपड़ियों में रहते सब और मिट्टी से आँगन लीप लेते..."
किशन के मुहं से निकला एक एक शब्द इतना गहरा था की सब के सब खो गए थे. एकदम सन्नाटा था अब.
"....जब चार बरस का था में तब गाँव में बीमारी फैली थी... सब घरों से कोई ना कोई बीमारी की भेंट चढ़ गया... मेरे घर से मेरी माँ और दो बहनें..."
"...बाबा कहते थे की सौ साल पहले साधू बाबा आये थे गाँव में. रामायण, भागवत की कथा सुनाया करते थे... गाँव में ही रह गए थे और वहीँ समाधी ले गए...कहते थे, सारे मुंडा लोग किशन भगवान् को बहुत प्यारे लगते हैं...इसीलिए मेरा नाम किशन रखा था बाबा ने...."
"....तब से कोई नहीं आया था गाँव...जब बीमारी फैली तब भी सबको लगता था की कौन आएगा अब... जंगल के देवों का ही सहारा था....लेकिन वो भी ना रीझे... भोग लगाया था हमेशा फिर भी...लेकिन एक दिन धौले साधू आये गाँव में..."
"...धौले साधू?"
"...हाँ, धौले साधू. एक दिन सब गाँव वालों ने देखा, भरी बारिश में, दलदल पार करके, खड़े पानी पे बने एक बांस के पुल पे लटक कर आ रहे हैं धौले साधू. एक दम सफ़ेद रंग था, सुनहरे बाल...ये लम्बे चौड़े... अनजान कपडे पहने, अनजान भाषा बोलते, बड़े बड़े झोले कंधे पे लटकाए, आ पहुंचे बीमारी से भरे हमारे गाँव में.... पहले तो सब डर गए, कभी देखा जो ना था ऐसा रूप...मगर बाद में इच्छाधारी बाबा समझ उनके आशीर्वाद को पाने सब पास गए उनके. सबको गले लगाया उन्होंने... बूढों को, बच्चों को... सबकी छाती पे सलीब की निशान बनाया.... प्रभु का प्रसाद सबको खाने को दिया. धीरे धीरे गाँव में सब चंगे हो गए. जो गुज़र गए वो गुज़र गए... बाकी सब धौले बाबा के भगत हो गए. गाँव में ही कुटिया बना के रहने लगे हम सब के बीच वो..."
"... धीरे धीरे हमारी भाषा सीखे वो और हम बच्चों को अपनी भाषा सिखाये....जानता है कौन थे धौले साधू?"
"... कौन?"
"...जिनको तू क्रिश्चियन मिशनरी कहता है ना, वो.."
"... आज उन्हीं की वजह से मैं और मेरी बहन जिंदा हैं... प्रभु येशु के आशीर्वाद से... आज तेरे साथ जो इस कॉलेज में पढ़ रहा हूँ ना, कभी सात पुश्तों में भी सोच नहीं सकता था मेरे गाँव का कोई लड़का... मेरी बहन ऑस्ट्रेलिया में है... फाइन आर्ट सीख रही है... बापू को मिशन की पेंशन है... गाँव में स्कूल है, क्लिनिक है... सब जिंदा हैं...खुश हैं...चर्च जाते हैं, प्रभु के गीत गाते हैं... बाकी गाँवों में येशु के वचनों का प्रचार करते हैं... क्या गलत है ये?"
"....हाँ, मुझ से ज्यादा मेरे बापू को चुभता है की अपने सरना धरम को छोड़ना पड़ा, अपनी पहचान, अपनी आस .. अब जंगल के देवों को नहीं पूज पाते हैं ना वो, पाप जो है... लेकिन बच्चों की ख़ुशी में खुश रहते हैं..."
आदित्य एक टक किशन को देखे जा रहा था.
"...अगर धौले साधू की जगह कोई मेरे जैसा आ जाता, सांवला... मूरख सा... तेरे गाँव... दवा, कपडे और किताबें लिए, और तुझे गले लगा के कहता कि, किशन, ले तेरे लिए तेरे धरम का भाई सब कुछ लाया है, तुझे अब ज़रुरत नहीं है अपना धरम अपनी पहचान अपनी इज्ज़त छोड़ने की....तो क्या तू रुक जाता, क्रिश्चयन ना बनता?...."
"... क्यूँ बनता? कोई आता धौले साधू से पहले हमारे लिए, तो क्यूँ बनता? ...मगर आता क्या तू? ... आते ये सब, जो खड़े हैं चुपचाप यहाँ?...बोल?"
* * *
पांच साल बीत गए हैं, मैनें वोही किया जो मैं हमेशा करना चाहता था ... लिखा.. ये, वो, यहाँ, वहां, सब कुछ लिखा.. अब भी लिख रहा हूँ... शायद आगे भी लिखता ही रहूँगा...जो मन में आएगा सब...
विकास? विकास भी हैं हम सबके बीच यहीं... एम एन सी में बड़ा मेनेजर है.... दस लाख का पॅकेज है... बहुत मेहनती है, सबको पता है कि बहुत आगे जाएगा... एक दिन अपने देश कि इकोनोमिक प्रोग्रेस की कहानी जब सुनाई जायेगी तो विकास का नाम भी शामिल होगा उसमें... कॉरपोरेट सितारा जो है मेरा दोस्त...
किशन चला गया यू एस... पिछले से पिछले साल. कभी कभार ई मेल आ जाता है उसका... आगे पढाई करने गया था... अब अच्छी नौकरी लग गयी है.... बहुत खुश है.... बहन और बापू को भी वहीँ बुला लिया है उसने... कहता है, अब लौटेगा नहीं. वहीँ बस जाएगा...
एक बस आदित्य ही है जिसका कोई पता नहीं... कहाँ है? क्या कर रहा है? कुछ नहीं पता. कॉलेज की पढाई ख़तम करने के बाद ही घर छोड़ के चला गया था... में तब मिला था उस से... कह रहा था की आर एस एस का प्रोजेक्ट है कोई वनवासी इलाकों में, बीहड़ जगहों में जा के लोगों से मिलने का, उनकी मदद करने का, दवा, कपडे, अनाज गाँव गाँव में पहुंचाने का ... बोला ज़िन्दगी भर यही करूंगा... यही मकसद है लाइफ में... घर वालों ने तो समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, मैनें भी बहुत समझाया... लेकिन एक ही रट लगा रखी थी उसने
"... उन्हें मेरी ज़रुरत है, मुझे उनकी ज़रुरत है....
...उन्हें मेरी ज़रुरत है, मुझे उनकी ज़रुरत है..."
...ना जाने क्या घुट्टी पिलाते हैं ये... इंसान का नमूना बना देते हैं....

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3 comments:

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

Sarita said...

भावपूर्ण डायरी। आपके ब्लाग पर आकर अच्छा लगा। चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है। हिंदी ब्लागिंग को आप और ऊंचाई तक पहुंचाएं, यही कामना है।
इंटरनेट के जरिए अतिरिक्त आमदनी की इच्छा हो तो यहां पधारें -
http://gharkibaaten.blogspot.com

संगीता पुरी said...

इस चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!