जैसे इक घर से जुदा होना। कुछ ऐसा ही लगता है जब उस काम को छोड़ो जिसको पिछले छ बरस से करते आ रहे हो. और काम भी वो जो बेहद पसंद हो. तभी तो छ बरस गुज़ार दिए एक ही प्रोजेक्ट पर. रैपिड मेट्रो। याद है जब बेवकूफों की तरह कागज़ों पे यूँ ही नक़्शे बनाया करता था. क्या मालूम था था तब की ये मेट्रो बनेगी और ऐसी बनेगी जैसे सोची थी. मगर मेट्रो बनी. जैसा मैं ने सोचा था वैसी बनी. एक अजूबा जैसा लगता है. उन बदहवासी भरे दिनों और परेशानी भरी रातों का नतीजा अच्छा रहा. मन को तसल्ली मिली।
अब इस कंपनी को इस प्रोजेक्ट को छोड़ रहा हूँ. दुःख भी होता है ख़ुशी भी. दुःख इसलिए की ज़िन्दगी के कई सबक इस से सीखे हैं. ख़ुशी इसलिए क्यों की अब उन सीखों का फायदा ले पाऊंगा।
नयी उम्मीद के साथ ये सफर खत्म हुआ और नया सफर शुरू होगा। घर पे ध्यान दे पाऊंगा ये उम्मीद भी है. आखिर घर है तो सब कुछ है वर्ना सब रेत. कहीं बारिश हुई नहीं की बह निकली।
अब इस कंपनी को इस प्रोजेक्ट को छोड़ रहा हूँ. दुःख भी होता है ख़ुशी भी. दुःख इसलिए की ज़िन्दगी के कई सबक इस से सीखे हैं. ख़ुशी इसलिए क्यों की अब उन सीखों का फायदा ले पाऊंगा।
नयी उम्मीद के साथ ये सफर खत्म हुआ और नया सफर शुरू होगा। घर पे ध्यान दे पाऊंगा ये उम्मीद भी है. आखिर घर है तो सब कुछ है वर्ना सब रेत. कहीं बारिश हुई नहीं की बह निकली।