कभी कभी सोचता हूँ के जीवन में कई पड़ाव पार कर के आया हूँ. लगता है कि सब कुछ देख चुका हूँ, सुन चुका हूँ, कर चुका हूँ. क्या यही जीवन था या है? आगे क्या है? दौड़ में अव्वल आने कि इच्छा के अलावा? मानता हूँ कि सच्ची ख़ुशी परिवार के संग है, प्रकृति के संग है, देश-समाज के संग है, कला के संग है, संगीत के संग है, परब्रह्म के संग है. सुकून तो इन्ही में है. तो क्यूँ इस दौड़ में हूँ मैं?
फिर याद आता है कि इन सबसे भी अधिक आवश्यक है ज़िंदा रहना। एक किस्म कि मजबूरी है ये. कहीं न कहीं कुछ ठीक नहीं है. ऑफिस में जी नहीं लगता अब.
फिर याद आता है कि इन सबसे भी अधिक आवश्यक है ज़िंदा रहना। एक किस्म कि मजबूरी है ये. कहीं न कहीं कुछ ठीक नहीं है. ऑफिस में जी नहीं लगता अब.